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प्रकृति के बीच जीते हुए एक जमाने में इंसान को देखकर इंसान खुश होता था, उत्साह के अतिरेक में भर आतिथ्य-सत्कार में रमता हुआ अपने आपको लुटा दिया करता था और अतिथियों या आगंतुकों को खुश देखकर खुद प्रफुल्लित हुआ करता था।
और अब, एक आदमी दूसरे से तभी बात करता है जब सामने वाला कुछ लाभ देने या कराने वाला हो, पद-प्रतिष्ठा और पैसा दिलाने वाला हो, आपराधिक कृत्यों के बावजूद अभयदान देने वाला हो या फिर चमचागिरी पसन्द हो।
लाभ-हानि के गणित और निन्यानवें के फेर में उलझा हुआ इंसान जिन्दगी भर इसी उधेड़बुन में लगा रहता है कि कहाँ से, किस से अपने लिए कुछ न कुछ कबाड़ ले और जमा कर ले।
इस विचित्र अवस्था में बहुरूपियों और नौटंकीबाजों की तरह जी रहा आदमी किसी का नहीं रहा, न अपना रहा, न अपनों को। वह उन्हीं का होकर रह गया है जो उसके लिए काम आते हैं या आ सकते हैं।
फिर वह एक का नहीं, सभी का कहा जाने लगा है। आज इसका आदमी हो जाता है, कल किसी और का। और अपने आदमियों को बदलता रहता है जैसे कि वह समय-समय पर औरों की जोरू होने का किरदार निभा रहा हो। या फिर वैश्याओं की तरह अपने आपका वजूद बनाए रखने के लिए गलियों और चौबारों में घूम रहा हो।
बहुत से लोग हैं जिनके बारे में कहा जाता है कि ये इसका आदमी है, ये उसका आदमी है। पता नहीं आदमी खुद की पहचान को छोड़ कर दूसरों का आदमी बन जाना और दूसरों के दम पर बंदरों, कुत्तों और भालुओं की तरह धींगामस्ती करता हुआ वीआईपी होने और समझने की महामारी को क्यों अंगीकार करता जा रहा है।
लोग अब दिल से ज्यादा दिमाग का इस्तेमाल करने लगे हैं और इस कारण से उनमें संवेदनाओं का खात्मा होता जा रहा है और नफे-नुकसान के समीकरण हावी होते जा रहे हैं। इन समीकरणों को जिन्दा रखने के लिए वह किसी का भी आदमी और किसी का भी नौकर बन जाने को सदैव तैयार रहता है जैसे कि भगवान ने उसे इस अर्दलिया चरित्र को निभाने के लिए ही पैदा किया हो।
अपने इलाकों में भी बहुत से ऎसे लोग हैं जिन्हें किसी न किसी का आदमी बताया जाता है। बेशर्मी और हैरत की बात ये कि अपनी पहचान खोकर दूसरों की पहचान के बूते रंगे सियार बने हुए ये मारीच और कालनेमि खुद को गौरवान्वित महसूस करते हैं।
इन जरखरीद गुलामों जैसी मानसिकता वाले लोगों को उस समय बड़ा आनंद आता है जब इन्हें कोई किसी का आदमी होने की बात कहता है। इनमें से कइयों के लक्षण तो ऎसे हैं कि इनकी पत्नी भी इन्हें अपना आदमी मानने को तैयार नहीं होती। दूसरों की तो बात ही क्या की जाए।
ऎसे पौरूषहीन, छद्म पहचान बनाकर दूसरों के दम पर जीने वाले, परायों की दया, करुणा और कृपा पर जिन्दा रहने वाले लोगों की भीड़ अब हर कहीं उपलब्ध है। कई इलाके तो ऎसे हैं जहाँ इन सभी को जमा कर लिया जाए तो बहुरूपियों, नौटंकीबाजों और दासों की बहुत बड़ी बिकाऊ मण्डी ही नज़र आने लगे।
इस प्रजाति की बढ़ती जा रही संख्या को देखकर कैसे कहा जा सकता है कि हम तरक्की की ओर बढ़ रहे हैं, समाज और राष्ट्र के उत्थान की दिशा पा रहे हैं, एकता और अक्षुण्ण्ता के लिए समर्पित हैं और विकास के तमाम मार्गों की ओर बढ़ चले हैं।
इंसान के भीतर से सब कुछ खत्म हो गया है। न मानसिक बल रहा, न शारीरिक स्फूति और इंसानियत। सब कुछ लगता है जैसे किसी ने चूस लिया हो और छिलके फेंक दिए हों। मुर्दों की तरह ढलते जा रहे हैं, चाल सुस्त हो गई है, गुटखों और तम्बाकू की वजह से मुँह से आवाज नहीं निकलती, आलस्य और प्रमाद इतना कि कोई काम समय पर नहीं हो पाता।
और इतनी अकर्मण्यता ओढ़े रहने के बावजूद तमन्ना यह कि हम समृद्धिशाली हो जाएं, बिना कुछ किए सब कुछ हमारे पास हो। वे सारे हमारे साथ हों जो हमारी सेवा-चाकरी करते रहें और हम बादशाहों की तरह पड़े-पड़े सारे भोग-विलास पाते रहें।
हमसे बड़ों और ऊपर वालों के खान-पान से बची झूठन, खुरचन और बूँदों का आनंद मिलता रहे। खुद चाटते रहें और दूसरों को भी चटाते रहें। व्यवस्था तो जैसे च्यवनप्राश ही हो गई है, जो आता है चाट-चाट कर खुद को धन्य समझता हुआ आगे बढ़ जाता है और स्वाद की वाह-वाह करता हुआ दूसरों को चिढ़ाता भी रहता है और चाटने-चटवाने के लिए प्रेरित भी।
गाँव के कुत्ते शहर में आकर रोटी का स्वाद भूल गए हैं, उन्हें पिज्जा और बर्गर चाहिए, आमलेट और बिरयानी चाहिए। इन सारे कुत्तों का इतना अधिक शहरीकरण हो गया है कि स्वाद के फेर में चाहे जिस तरफ लपक जाते हैं, चाहे जो इन्हें गंध सूंघाकर स्वाद के फेर में कहीं भी ले जा सकता है, फिर जो जितना अधिक अनुभवी है उसी के पीछे स्वादु श्वानों की जमातें चलती रहती हैं।
शहरों के कुत्ते महानगरों और राजधानियों में जाकर बिगड़ गए हैं। उन्हेंं पता ही नहीं है कि वे कहां से आए हैं और कहां जाना है। बस एक ही लक्ष्य रह गया है उसी तरफ लपकते हुए चले जाना है जिधर कुछ न कुछ चाटने को मिलता रहे। जितना बड़ा महानगर उतनी अधिक झूठन और खुरचन पाने की संभावनाएं।
इसी अनुपात में भौंकने वालों की गिनती की जानी चाहिए। जहाँ अधिक कुत्ते, वहाँ की नींद हराम। हमारे यहाँ हर किस्म के हैं। भौंकने वालों से लेकर लपकने, काटने और झपटने वालों तक की किस्में पूरे गर्व के साथ मौजूद हैंं।
कईयों को यह भी पता नहीं चलता कि कहाँ भूँकना चाहिए और कहाँ चुप रहना। सब कुछ फ्री-स्टाईल हो गया है। फिर आजकल भौंकने के लिए मंचों की कहाँ कोई कमी है, जितने श्वान उतने अधिष्ठान। कइयों का तो वजूद ही भौंकने पर टिका हुआ है, न भौंके तो लोग इनके अस्तित्व पर ही शक करने लगें।
आजकल भौंकने का धंधा कुछ ज्यादा ही चल पड़ा है। हर कोई बिना सोचे-समझे भौंकने लगा है। बरसों से खाते रहकर डकार भी नहीं लेने वालों के लिए वर्तमान दौर कुछ अधिक कठिनाइयों भरा हो चला है, रह-रहकर कबाड़ याद आता है तो पेट में मरोड़ पैदा होने लगती है और इसी का दर्द भुगतते हुए नॉन स्टॉप भौेंकने लगे हैं।
जी भर के भौंकने दें इन्हें, जो जितना अधिक भौंकता है, लोगों को आजकल पता चल जाता है कि क्यों भौंक रहा है। चुपचाप जो कुछ करते रहे, उनके लिए यही वक्त है भौंकने का, पर कुछ नहीं होने वाला है इससे। देखते जाइये आगे-आगे होता है क्या।
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