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मार्गी अपने मर्म से, स्वभाव से देसी ही है: पद्मश्री मुकुन्द लाठ


  बीकानेर ।  बीकानेर प्रौढ़ शिक्षण समिति द्वारा डॉ. छगन मोहता स्मृति व्याख्यानमाला की 16वीं कड़ी के तहत  खयाल मेवाती घराने के संगीतज्ञ व पंडित जसराज के शिष्य पद्मश्री मुकुन्द लाठ के दूसरे व्याख्यान का  आयोजन  प्रौढ़ शिक्षा भवन सभागार में किया गया। व्याख्यानमाला के मुख्य वक्ता पद्मश्री मुकुन्द लाठ ने दूसरे  व्याख्यान के तहत 'संस्कृति के सोपान: मार्गी और देसी विषय पर व्याख्यान देते हुए कहा कि ''बृहदेसी के  लिए भी राग संगीत मार्ग ही है पर वह मूलत: या यों कहे कि अपने मर्म में, अपने ह्रदय में, स्वरूप और  स्वभाव में देसी का ही एक रूप है। इसी क्रम में पद्मश्री मुकुन्द लाठ ने कहा कि बृहदेसी में देसी का एक ओर भी अर्थ उभरता दिखता है। जो  शारंगदेव में उसका अर्थ बनकर उभरता है। शारंगदेव में देसी और मार्गी को नया और पुराना कहा गया है। नया  जो नवत्व के प्रवाह में रहता है। वहीं मार्गी पुराना है जो परिनिष्ठित है। कुछ कुछ क्लासिक या क्लासिकल जैसा  जिसमें आदर्श होने का भी भाव होता है। उन्होंने कहा कि अभिनव गुप्त ने इसी शब्द का प्रयोग किया है। वह मंत्रातुल्य है। देसीत्व की कोटि से बिल्कुल  दूर। उसकी आत्मा ही और है। गंर्धव की तुलना साम से की गई है। मंतग में मार्गी देसी का ही रूप है। उदात  संभावनाओं में इसे खुला रूप कह सकते है। सारत: देसी और मार्गी समझने हेतु ही प्रत्यय किये गये है। शब्द  अर्थ के बिना नहीं होता। उसी प्रकार देसी के बिना मार्ग नहीं है। अर्थ हमेशा अमूर्त ही होता हैं। जिस प्रकार  संगीत हमारे भावों से मूर्त होता है। लेकिन भाव स्वयं अमूर्त होते है। लोक का दृष्ट अदृष्ट के बिना नहीं होता।  मार्गी वह है जिससे हमने कोई व्यवस्था दे दी हो। जिस प्रकार भाषा भी जब तक व्यवस्थित नहीं होती भाषा  नहीं कहलाती। संस्कृति में जब तक प्राण रहेगा, मनीषा रहेगी। देसी और मार्गी की संवेदनाएं बनी रहेगी। मार्गी  को शिष्टता का निकष माना गया है। मतंग ने देसी और मार्गी दोनों को देसी में रखा है। कुछ संगीत ग्रंथों में  जिस अर्थ को मार्गी में लिया गया है। उसमें एक अर्थ अति लौकिक भी कहा गया है। व्याख्यानमाला के खुले सत्रा में डॉ. नंदकिशोर आचार्य, डॉ. श्रीलाल मोहता, व्याख्याता दिव्या जोशी, व्याख्याता  असित गोस्वामी, व्याख्याता डॉ. बृजरतन जोशी सहित सुधी श्रोताओं द्वारा कबीर व महावीर द्वारा देसी परंपरा  को मार्गी की ओर ले जाना, सीखिया, देखिया व परखिया के आधार पर मार्गी और देसी को निकष करना,  लोक और शास्त्रा की संवेदना में अंतर जताना, अक्षर व वर्ण के अंतर को उल्लेखित करना, जैसी महत्ती  जिज्ञासाओं और विचारों ने इस दो दिवसीय व्याख्यानमाला को सार्थक किया।
कार्यक्रम के अंत में समिति की उपाध्यक्ष श्रीमती सुशीला ओझा द्वारा आगंतुकों के प्रति आभार व्यक्त किया।  दोनों ही व्याख्यानों में शहर के प्रबुद्धजनों एवं सुधि श्रोताओं की सक्रिय सहभागिता रही।