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अगली सदी के आगे की इक अलबेली बात है। अनजाने अतीत के अनुसंधन में अनवरत रत अन्वेषी ने आज के आदम से अनछुए गुजरे कल की अनूठी अनपढ़ी इतिगाथा को अमला सह खोजी या खो दी जब खोदी ममी खोजी ने, यह तो वो ही जाने। हाँ! पर, तलातल में बंद बिलों की तह से निकल चहूँ दिक चले अंध रक्तचूषक पथ के सब सजीव सफाचट करते चले। वनराज, गजराज, रेतराज, नागराज, सारे सरताज को बने यमराज का ग्रास। बेरोक कहर मीलों बरपा, विश्व के बीचोंबीच बरसों से बसे बहुत बड़े बीहड़ के बगल में से बहती बलखाती के बेढ़ब वलनी पर बंधे बांध के बाजू में बेमिसाल बहादुर बॉ, बहु, बेटी, बड़े, बूढ़े, बच्चे से बसे बमुश्किल बीस बीघे के बसेरे पर पहुँचे। सदा सुबह सबेरे सारे समुह में श्रमीवृंद वन जा संध्यावदन तक खाद्य संचय हेतु कंदमूल संभरण कर आनते। दर दहलीज की दरदारी में देवियां दुधारू संग दिवारात जुटी ऊती रहती। नासमझ नटखट निर्भय, निकास लगे में निशामुख तक नियमित खेलते। पर, इसी जीवन के गुजरते इन पल में यकायक पड़ी मौत की छाया पर निडर नन्हों की नजर! पर, न डर तुरंत धावा कर फेंका धर पूंछ घूूमा कर धरा पर पनघट पार। दंतहीन कर पिजरे में धर ले चले घर ताकि मौसी खाये घूस मनभर, पेटभर, बगैर डकार ले हजम कर जाए जबर। यह देख, सकते में आ, मांऐं अकुलाई। मुस्कराते चपल पर गुस्साई। सारे सुत समवेत सुहासित बोले-तू तो नित निशा निद्रा पूर्व हमको वीरसू रासो सुनाती- शावक संग खेेले लला, बाल बासंरीया विषधर कालिये पर करे ता ता थैय्या। हम मूस से भी भय खाये भला, क्यों जननी जरा जतला? भींच अंक में नादानों को नम नयनों में मंद मुस्काते ममता मोहक सुर में मन नहीं मन में बोल पड़ी, मां के दूध की शान बढ़ाई। लघु अंतराल में जरा दक्खिन में हरे भरे ऊँचे घन से घिरे टापा जंगल के टोपीबाज दोपायों ने वैश्विक अहं ले शक्तिमद में मौजां के लिए विशाल क्रीड़ालय बनाने अतिक्रमण करा। गलीज गोरे घुसपैठिये पर, क्रुद्ध हुआ कि रूष्ट हुआ! याकि पुश्तैनी जमीं पर गदें कदम के कदन से भविष्य के भविष्य पे किंचित हुआ वो चिंतित! जो हो पर, जरूर जानता वो इतना निश्चित ही प्रकृति संग निश्ंिचत रहना, संतति की रक्षा करना, पूर्वजों की अनमोल घरोहर संजोये रखना। जान चाहे देनी पड़े या चाहे जान लेनी पड़े। बली सिहों ने तुरंत चढ़ाई की। दो पहर में गोरों को सफा कर काली करतूतों की सजा दी। लाल हो गरजने वालों के लब तब खुदगर्जाें के गंदा पानीमिले लाल से भीगे। हाः! र्दुःभाग्य! पशु प्रकृति, नर संहार कर नर खादक भये, सो लगी लत जो खूँ की तो बू ले दे हुंकार दिशा ली इसी गांव की। दिन दहाड़े सुन दहाड़े वामा सारी बांध सारी ले कटारी पहुँची ग्राम किनारी। पलक झपक लपक पिल्ले समान कान उमेठ दो चार के कण्ठ भींच झापड़ जडे़ तो सवा छः फिट के चौपाये कठपुतली से पैर लटकाये जमीं पर पड़े मिले। झट दुम धर चटियल पर पटक चार-छः के रेत गला चीर अंतड़ी बाघम्बर खींचें ओढ़ने बिछाने को। बचे जो पे ज्यों धरे दो हाथ, तो शेरे दिल भग्न मेरूदण्ड के दंतहीन श्रीहीन हो के रंेगते नानी-मौसी याद करते म्याँऊते जमीं पर धरे पाये। घसीट लायी मर्दानी बाघन के बांधन को बाग बगीचे की बाढ़ माहे, ताकि लुकछिप के रात-रात भर चरते खरहे, नीलगाय, बारहसिंघ को डराडरा के रखें फसलें सुरक्षित। दिन ढले मर्द मिले। महिलाओं के दमखम पर कौतुक कर इतराये। नयन नचाती नारी सारी गुर्रा दी। अब चाहे आये गोरी भी तो जौहर हम नहीं करती, जब तुमसे प्रेम करती मन से प्रभु भक्ति करती फिर जानवरों से भी न निपट सकतीं। खुद ही हुआ सीना चौड़ा तब बाजु भी फड़के। आग जला खाद्य सेंक नीहारीका तले पूरी ठंडी रात में नाच-गा ठोल-बजा जीत का जश्न मना। प्रकृति मां की अनूठी प्रकृति।। करोड़ों बरस पहले के भूनृप के डिम्ब को अक्षत सेती ने जाने क्या विचारा। यकायक अनुकूल परिवेश प्रदान कर एक नमूना जना। जानव ने जिस अंचल में धरा कदम धरा के आंचल का जीवन करा अचल। आतंक का हमनाम बन करउत्तरजीव ने आग ऊगल लोमड़, भालू सब गुम करा दिए। उल्कापिण्ड के मानिंद भूतल पर गिराये ऊँचे उड़ते बाज, गिद्ध समेत पखेरू सारे को झुलसा प्राण हर लिए। आंसमा दिक् उठती हनुमान की पूँछ सी उसकी भारी दुम जिधर लहराती पोंछ सारी भूमि समतल कर जाती। हर भरते डग पर योजन दो योजन तक डगर कांपती। आधे कोस के बदन वाले के विंध्वस को देख मन ही मन कांपते हुऐ कोसता हरेक जीव। भोजन की चाहत में मनुज गंध पा के बेफिक्र हो, वो इसी दिशा में आ चला। तत्क्षण, छठी इंद्री ने अनजाने के आक्रमण का अहसास, जंगलजन को स्वतः दिया। एक दूजे को तड़ से सीटी, ढोल, नगाड़े, बजा चेता कर पवन वेग से परकोटे तक आ, ईऽ .. आऽ.., हूआऽऽ... ... ऽ.. , ऊळू..ऽ..लूऽ . चिल्लाते, तीर-तरकस ताने, भाले-बर्छी संभाले, इस्पाती जाल बिछाए, वे शूरवीर स्वजनों को सुरक्षा देने फौलादी दीवार बने। अधीर तीष्ण नयनों की कतारको अजुबे का दीदार होते ही एकदम संगसंग योजना संग प्राणघातक प्रहार प्रारंभ किया। भूखा वह भयावह भूनने को जब बरसाता अनल। प्रतिकार में बदन पर पाता बरसती शोंलो को ले बाणों की बरसात। डटे बिंदास झटभेरा। दोनों ने ही नहीं सीखा अभी तक परास्त होना। तिरिंग-तिरिंग कर ऊँचे वृक्षों की लटकती लताओं को झूला बना के संगी संग ले वीर कुशल नट की विद्युत गति से संजीवनी नद में ले जाते झुलसे बदन लिए साथी तन को। जीवनी शक्ति को नद जल से ले, दूने वेग से, पूरे जोश में, पल में आते खुद ही पानीपत के से मैदान में। फिर-फिर शौर्य दिखलाते, आग की लपटों में गुजर कर जानव के जबड़ों में गुंथ शूल जड़ कर। क्रोधित हो जब भारी पंजें मारता, चीते की सी फुर्ती से सरक, शेषनाग सी शक्ति से भांेकते भाले उसके पद पिंडलियों पर और संग-संग अंकुश फेंक जानव की नाकों कानों से पिरो दिए मनों भारी तनों को बांध्ेा इस्पाती तार। तब काकपाशिक के कर्ण किनारे कटते तो उसको दिन में ही दिखने लगते सितारे। सहसा सहस्त्र तीष्ण तीरों को सटीक लक्ष्य पर बरसा कर कुम्भकरणी काया के रोयें-रोयें को मनुपुत्रों ने भी बेंधा। तिनके से लगे तीखेतीरों ने बिंधे बदन में कर दीया बेदम। जवानों के संग लंबी तीव्र गति की उन्मादी लड़ाई से ऊपजी आंखों में थकन से, तब भेजे में पहले-पहल भय की नागपफनी जन्मी। हार वह मन से, बेबस तन से, तड़पता तंग हो, मन-मार कर मानो मरने की मांग में जो उसे सूतसी लगे वो साकलों में बंधे रह कर सर्मपण भाव से, जैसे बंधे थे कभी पवनसुत एक पल को बह्मपाश में, गुमसुम वहीं माठ में, डायन का बेटा शोर न करता, निश्चल बैठ गया। खबर थी - यह भी, खासमखास, पर खबरदार करने वाले खुद खबरनवीस की ही खोजखबर है खत्म आज। आज बस गुरुजनों की गाढ़ी कमाई गवां खरीदी खबरची डिग्रीधरी के ई-खबरची के बस में कहां कि खोजे लाए कोई खबर। वैसे ही मैं भी, खराब जमाने का खबरदबाऊ पत्राकार, जो पाखंड कर झूठा दम हरदम भरकहूं ज्ञात हर खबर। उसी ढलती सर्द सुहानी शाम, सबके संग बना एक राय सीना रोब में फुलाये रंगालय मेंछक कर जाम भोले के नाम छलकाये जिसके दाम भले-भोले गांव के गिरे दबे गरीबों को ग्रांट दिलाने के नाम छल कर जुगाड़े। लिखा जाता नहीं है बिना गटकाये, पीने को बहाना बच्चन से लेखनी के मध्ुाशाला में इस मुक्तक को गाये, सबके संग मिल कर जॉम पर जामॅ छलकाये। शःऽऽ!शःऽऽऽऽ! कहना ना, कहीं, पर सच है यही! लिखना तो आता ही नहीं, बस जबान चलानी आती है। किताबें पढ़ने में तो मौत आती है, मगर रोजी के मारे याकि पेट के खातिर चोरी की राह में हाथ डाले अवैध कब्जे के भवन में बने पियक्कड़ालय की नेटपर बैठ, नए कलमदार की चुराने इक खबरें, मेरे जहन में घमासान फितुर मच रहा। जाहिर सी बात है कि चोरी करने में चूंकि लगता है डर। चुनांचे तुंरत उडेल कर, डकार डाले दो घूंट, सरकार से मारे नोटों के दम पर और बगैर ले डकार के ठाठ से बैठ नजरे गड़ाई संगणक के शीशे में। शीशे के ग्लास में तरल लाल रंग को खिड़ा, हलक में ढलका कर, पूरे शरूर में पक्की लगन से गहरे मगन से, थर्ड कंट्री की थर्ड क्लास ब्लूसाईट पर मगन हो कर नजर मार रहा था कि यकायक पड़ी नजर चकाचक स्क्राल की खबर पर, चौंका पढ़कर उड़ा! चट छः पंक्ति हटा चार जोड़ निकाल दो प्रिंट पटका एडीटर की टेबल पर। जो खुद धुत्त बैठा टेबल पे नाड़ झुकाये, लिपटाये बाहें कमसीन कन्या की कमर पे, चिहँुक उठ खड़ा हुआ तनकर। जानता खूब मैं, एडीटर की गहराई। केवल दोइंच लाल में समाई, जो घिरी शीशे के घेरे में या रेशमी चीर में। लेकिन चाहे जो भी कहूँ मगर दिल से मानता हूँ। कमबख्त बूड्डा खूसट, खबर की परख रखता मगर परफेक्ट। वर्ना, आज तक नमस्ते तक का उत्तर न देने वाले ने, क्यों गिरा मेरे गलबाहें ऊगलवाने को पूछा ना होता-चोरी में सबसे तेज! नकल में सच में नं.एक। हसोड़ और भसोड़ चैनलों के खबरची टोली से बच-बचा कहां से मारी ये खबर। अब तक तो जमाने से मैंने भी सीख बखूबी जाना था। दो टके के वेतन लायक कभी एडीटर ने भी मुझे कहां माना था। कड़क कर तब मैंने कहा-कहते कहीं नहीं कभी सूत्रधार, सच्चे कर्मठ पत्रकार। चिढ़, परे खिसक, गटक घूंट, ऐनक नाक पर गिरा, खा जाने वाली नजरों से ताक, आँखें तरेर हुक्म ठांेका-हुजूर, आप आज ही कवर कर इस खबर पर एक ऐक्सक्लुसिव कवर स्टोरी फौरन बना लाएं! जल्दी! मैं भी घिस-घिस कर प्रधानों की खबर और संगत कर मन के मोहन से ठीक सीख चुका पक्का ढीठ बनना। अपने मतलब की लीक पर, सदा जमकर टीक कर रहना। देश और समाज की सपने तक में भी, कभी किंचित भर चिंता न करना। देश के दीन के पैसे पर कंरू नित दिन विदेश यात्रा, बेचूं खाऊँ देशवासियों का हिस्सा! लूं दलाली दबा के, करूँ घोटाले गहरे! मंगाऊँ महीना थानों से, वसूलूँ एम.सी.डी. वालों से। दबोचूं नोट सट्टेबाजों से, खोसूं खोखे-पेटी दारूबाजों से। तेरार हो या रार पर कर करार करकराते कालाधन को जमा रखूं स्वीस बैंक में पुश्त दर पुश्त वास्ते जम कर के। सालों में एक अवसर अब जा कर आया था। रूठे भाग्य में जिंदगी का पहला और यानि तय कि आखरी छींका टूट मेरे भाग में आया था अथवा कि मुझ राई के से पर्वत के नीचे आसमां से ऊँचा ऊँट आया था। पक्की बेशर्मी से नमकहरामी में विश्वरिकार्ड बनाते मैंने, जो खेत ही खा जाए वैसी उस मेढ़ से भी बढ़ के, अन्नदाता का भयादोहन करते,तब, फौरन, पलट, ठोंक कर, बिना पत्ते ब्लाईंड खेलने वाले पक्के जुआरी के जैसे, कहा- सुपर सोनिक प्लेन प्लस राह के खर्च के लिए कड़क नगद विदेशी करेंसी में रकम दें। तभी जा सकता हूँ, जब चुका दूंगा पूरा। महीनों से मालिक मकान पर जो है कि बकाया किराया। हालात की नाजुकता से तमतमा कर रह गया। ऐनक के ओट से आंखों ही आंखों में हुक्म लेखपाल को दिया। बगैर लिखा पढ़ी, मय बकाया समेत छः माह का वेतनमिंट से पहले ही किलसता हुआ घाघ चमचा अग्रिम दे कर मेरी व्यवस्था की गाड़ी पटरी पर ला कर सही कर गया। यह कोई नई बात हरगीज नहीं थी। धरती पर बोझ मैं और मेरी यायावरी जिंदगी समय के पास ही बोझ थी। समय के पास करने की हरदम एक ही खूबसूरत सी आदत थी। जानता था सिर्फ मैं कि सच में तो कुंवारा कालीदास हूँ कहीं दोयम न कहाऊँ सो विद्योत्तमाओं संग हरदम नजर आऊँ। जलती दुनिया आह भर दूर रहती थी। गुजारने खाली वक्त, निहारते खूबसूरत लब व कट उठाना मुफ्त यात्रा का लुफ्त जिंदगी जीते जा रहाथा। पकने लगे बाल, तब भी उठते वही ओछे ख्याल, मिले जे-क्लास में, बगल की सीट पे अरबपति की कोई इकलौती। अपनी बारी के इंतजार में ट्राम, बस, रेल, प्लेन और मेट्रों की लंबी-लंबी कतारों में, कोले में घुली अंगुर की बेटी को कोई ना जान पाए पर हम खुल्लम खुल्ला घूंट-घूंट गिटकाये चुप खड़े रहने को आदि चूंकि हो चुका था, इसी नाते बिना हीले हवाले बेफिक्री से फिलवक्त में खोजी गई यात्रा की नई ईजाद तीव्रगामी ट्रांसमिटेशन की कतार में निश्चिंत लगे, मैंने सारी जानकारी को हरदम सही और सारी जानने वाले बीबीसी के मुख्यालय में कार्यरत अपने भरोसेमंद बचपन के एकमात्र लगोंटिया यार के सचलभाष को मिलाया। मधुर फिल्मी धुन सुनाती सतर्क ध्वनि धुुंआधार जाते ही उसने देख मेरा नंबर बड़े बेमन से बेबसी में उठाया। मैंने अगले पल सुना भूल और भुला चुका अपना बालपन का नाम। मेरी मरी भींगी भींगी होती या रोती पलकों में कौंधे पल में वे सपने, मिल के गढ़े हमने बड़े हो मिलके पूरे करेंगे। जल्द कत्ल कर मन-मस्तिष्क में ऊपजते स्वच्छ स्वर्णम निर्मल ख्यालों का। घोंट कर जन्मते जज्बातों का गला, घूंट गटक कर कातर स्वर में करा-जय राम जी की! तदुपरांत कुशलक्षेम को पूछा-केम छे भाया? मित्रा ने कहा-मजा में छूं। पर.... कोई रगड़ा क्या? बता मियां मिसकाल से ज्यादा आज कहां से तेरे फोन में दाम है, जो किया तुमने अपने ही मोबाईल से इंटरनेशनल कॉल है। मैंने कहा-यार, तुझसे क्या छुपाना। तेरे भरोसे हो मैंने एक काम का बीड़ा उठायाहै। घबराकर बेचारा हल्का के हल्के से फौरन बोला-मंदी है, यार उधर ना मांगयो! उसका बेहिसाब पैसा खा पी हजम कर चुका! तब भी मैंने हद कर के, बेहायी से डांटा उसी को कस के-क्या हिंदुस्तानी बस भिखारी है? जानता नहीं कहता था, सोने की चिड़िया देश। एक आध बार दस-बीस हजार पौण्ड क्या दे दिए, अहसान कर दिया अथवा खुद को तेने किस गलफत में रिर्जव बैंक इंडिया समझ लिया। याद नहीं क्या इतिहास थातुम्हारा। धोखे से फैला कर चेचक तुमने भोले अफ्रिकनों के हीरे लूट लिए। हैवानियत को मात देते जुल्म ढहा कर रेड इंडियन पर धोखे से अमेरिका कब्जा गए। खा गए उन्हीं को जो खिलाये वहां के भूखों को। ऐसा ऐसा गुनाह किया कि क्या गिनाऊँ मैं तुम्हें। ब्रेड, बर्गर, बिसलरी, बियर बेचने के लिए सोची-समझी साजिश सेयुक्लिप्टस बुआ कर भूजल उड़ा दिया। स्वार्थपरता में ऊसर बना कर नीले ग्रह से हरियाली हटा कांक्रीट का किया। कहने से क्या होता है कि राष्ट्रपति भवन तक का खर्चा लंदन ढोता है। अरे वो तो वहां तुम्हारे विक्टोरियाक्रास को किराए पर खंभा दिया है, वर्ना तो अशोकस्तभं के चार सिंह दसों दिशा में दहाड़ते देखते। और इतना सुन! बस, एक खबर में तेरे यहां मंदी का मौसम और भुखमरी का जमाना ला सकती है।अरे, अभी स्वीज बैंक में तुझे भी पता है, कितना खजाना मेरे देश का अनाम जमा है। और तू कर क्या रहा है? गोरी रानी की गुलामी। ताकि मुट्ठी गर्म करनी पड़ी या बिस्तर को, हर हाल में तुम्हारी रानी के, बस दुम हिलाते तलवे चाटते शाह-नौकरशाह की जमात हर देश में हो। जैसे हो बस सिलिकान वैली का स्वार्थ सिद्ध हो। उसके वास्ते हमारी परम्पराओं में ढांेग और पाखंड प्रचारित करके, रसातल में राष्ट्र की नई पौध पहुँचाते। कल को बस पहचाने माने पश्चिम की चिर्यस कुंस्कृति को प्रगति। पॉलुशल तुम पाँच पहर के चंद पटाखों में पाते पर प्रतिदिन फोड़तेे परमाणु बमों में नहीं। आधुनिकता होती अय्याश वेलेन्टाइन के संग बार में, मगर एकदिन की रंगीन होली गंदली होती है। संयमित मर्यादित जीवन शैली मूर्खता होली।दो पल की जिंदगी में पल-पल को गड्डे में डाला। सद्दाम और लादेन पाल, मुसलमान को बार-बार बोल बोल, हाथ में गन थमा, सोच में जहर घोल, जो खेल खेला, धर्म इस्लाम को आतंकवादी का प्रतिबिम्ब बना डाला। ईसा-मुसा के प्राणी प्रेम विचार को सूली पर चढ़ा चर्च की आड़ में क्या-क्या गुल खिला। ऐजेंट बना कबाड़ियों को कंधे पर कुरान के नाम अंधेर और नफरत का खेल जहाँ में जो किया। खोल दूं ये सारी पोल तो तुमको शांत सहती सुलाई जनार्दन तुरंत चढ़ा दे सूली पर। सुन धराप्रवाह धमक भरा मेरा कहा, सांसे तक थम गई बेचारे की! यह अहसास पा, तबजरा प्यार से कहा-यार मेरे, एक बेजोड़ कारनामे की खबर पर डाल दे जरा एक किरण। ठाना है। मैंने भी एक सनसनीखेज खबर रचनी है, खोजबीन कर! ऐसे हट कर के किसी विषय पर। उत्साह में भर जरा खंखार कर यार ने चहक कर मुंह खोला-हाँ! धांसू तो कई समाचार है, पूछ जानना है क्या? या तू ही बता किस मेल पर और किस बात पर डाटा चाहिएगा। मैंने पूछा यार से-देखा सुना है कहीं? पकड़ा सबसे साहसी हिम्मती लोगों ने एकप्रागैतिहासिक काल का जीव! यार ने कहा-हां! है, वो यहीं। यहीं मैं भी हूं। जिस गांव में बेजोड़ कारनामाघटा, उसी गांव के मुखिया संग बैठा हूं। इंतजार में हूं उस विशेष बहुभाषिये के, जानता जो ब्रह्माण्ड की तमाम भाषायें और समझते जिसकी भाषा को विश्व के सारे सजीव हैं। मैंने कहा-मुऐ आना मुझे भी है, वहीं! कहाँ है? बता, इस ठिकाना का अंक्षास-देशांतर। तब चंद पल में तू मुझे सामने पा। यार ने दे पता किया चेता- हुन आ! चट पहुँच जा! वर्ना मिंटों में होगी खबर जहां में सारी! बस पलक झपकते ही मैं वहां संप्रेषित था। मगर यह क्या? भग्न तूमीरों से पटा, रक्त सनी माटी में सना, टूटी सांकलों चप्पलों से भरा मैदान लेकिन खाली पड़ा था। एक थर-थर कांपता स्वेद से सना इंसा को कस के धरे बंधु भींगी बिल्ली सा हैरां चुप खड़ा था। मैंने पूछा यार से-देखा तो कहीं नहीं!! वो जानव जो कहा, क्यों सूना यहाँ? बोलो भी अभी। सारे जहाँ में होगी हंसी, खबर कहीं झूठी तो नहीं। यार ने कहा-कलम की कसम। नहीं!नहीं!नहीं! जब कही आने की तुमने तो बस यही कहीभाषाविद् से कि मुखिया से कहे कि एक की जगह मंगा दे दो कप टी के! कि बस उस की सुन बात, पता नहीं की हुआ।। मानो भूचाल आया या भूत उनके पीछे लगा। जो सुना सबने जड़ हुए सारे पल में, कहा कुद मुखिया ने खुफिया सी भाषा में कि चिल्ला सब भागे चीखते-चिल्लाते। अनोखे गाँव के साहसी मर्द-महरारू के साथ ठोर डंगर ही नहीं पिजरा तोड़ परिंदे तलक बिना पीछे देखे भाग लिए और तो और प्रायः मृतप्राय, डायनासोर भी भला क्यों भय खाये दुम दबाये रूदन चित्कार करता बंधन उखाड़ कट पड़ते सांकलों में लिपटे बंधे बेहाल हाल ही में नदी किनारे मुँह बालू में छुपाये जाने कहां भाग निकला। हैरत जमा निराशा में मेरा मन डूबा। दिल के अरमां आँख के शोले बने। तनबदन में आग लग गई। मित्र मेरा मिजाज जानता था। विकटता स्थिति की समझ उसकी प्रतियुत्पन्नमति ने प्रश्न किया उसी वक्त जबानकर से-है!रे! बता प्यारे, क्या कहा तेने? समझा जरा, माजरा क्या घटा रे! भाग क्यों गए सारे? क्यों चिल्ला रहा था सरदार बता हमें। कह रहा क्या जानव बता रे। अंत में भरकस नियंत्रण में जुबां को बंद बत्तीसी में सहेज दांत पीसते घूर जो डाली इंटरप्रेटर पर नजर, खुद की गर्म धरा से भीगे पदतल में खड़े कांपती लड़खड़ाती आवाज में रूधें गले से बेचारे अनुवादक ने डर-डर के बोला-बस वही कहा था साहब से सुनकर, जरा समझा कर व विस्तार से कि पीयेंगे दो कपटी, अबी पल दो पल में आने वाला है, वो भी, सबसे गहरे सात समुंदर सबमें चौड़ी तेरह नदी पार से एक हिन्दवी पत्रकार, सो दो चाय को कहे! यह सुनकर शेर दहाड़ पर गौ की तरह स्तंभित हो खड़े हुए गांववालों की बिल्ली देखे कबूतर की भांति आंखें बंद हो मुर्छित अवस्था हो गई। इस स्थिति में सबसे पहले होश संभाल कर वयोवृद्ध व प्रधानपंच ने छाती पीटते हुए सावन के प्यासे पपीहा के क्रंदन स्वर में सबको कहा-भागो! भागों! जान बचाओ! दूर सात समुंदर पार के वीरों-महावीरों के महान देश से लेने को हमारी खबर “वो” यहाँ आने वाला है! शताब्दियों तलक दौरें दुश्मन जमाना रहा पर मिटा न सका उनकी हस्ती आज तलक कोई भी-कभी भी! तूफां भी रूख बदल कर के रूक गया और हरदम को थम गई फिजाएं भी इनकी सीमा में आकर। सीमा पार से आकर शक, हूण, ओह्म, तुर्क, डच, फ्रेंच, कुर्द, मुगल मिट गए, सिमट गए, खो गए खुद! हो गया खाली हाथ, जगजीता सिकंदर भी आकर। खड़ी हो, उलट ली उसकी विश्वजयीवाहनी डरकर। दारूल बनाने के नाम लूटपाट वाली चगेंज-तैमुरकी कबाइली नस्ल के खुद ब खुद दिमाग बदले। समझ बूझ कर फिकरापस्ती खुफ्रती दिमाग से निकल से बनाई दीन-ए-इलाही जरा सबसे हट कर। खैबर और बोलन की पतली गली से घुसने वाले शैतान के वहशी नुमाईंदो के रंग-ढंग सारे गए बदल। खुदा के नाम पर शैतान का कहर बरसाने वाले काबायली खुद ही, हो सही से सीखे कुरान का सार सही अर्थों में यहीं आकर। जलाया जिनने ज्ञानसागर नालंदा-तक्षसिला का। उनके अनुगामी के वंशज बनके डॉ. अब उलप आखिर जै अतुल ज्ञान का पुनः निरोपित कराने का कमाल करगए। गजनी, गजनवी, गौरी, नादीरशाह, अब्दाली ढेर सारे मल्लेछ लूट ले गए पर नप गए बाल्शितों में। जिनके साम्राज्य का सूरज डूबता न था, काले दिलवाले गोरों के सितारे खो गए हरदम को गर्दिश में, वहां के एक अकेले निहत्थे लगोंटधरी से। गोरे विदेशी पंजें ने विषैली फूट डाल तब भी डिगा न सके। बिन दवा झेल गए, चुप दबा गए, दिल में राम, कृष्ण, बुद्ध के वंशज बटने बिखरने के दर्द को भी। ऐसे सौ करोड़ से ज्यादा सूरमाओं वाले में भी टॉप के छटें-छटायें जो चुन-चुन कर 540 आये, उनमें सत्ता की हवस में मिंट में मटियामेट प्रिय-अप्रिय को करने की कुब्बत है ऐसे वो खादी वर्दी वाले भी और वैसे ही दिमागी खाकी वर्दी धारी भी जो ढक्कन खोलने के वक्त विभिन्नता में बेजोड़ एकता रखे, फटिक मेें उसी जनता को जोतते जिससे मिली तंख्वाह पे जीते, केवलमात्र, अभी आने वाले इसी खाकी चमड़ी वाले से ही बस खौफ खाते। सवा सौ करोड़ में खूंखारतम् नापाक नये घनाघन दिल दहलाने वाले गनधारी भी रूबरू हो सलाम ठोंक झलक दिखलाने वास्ते जिसकी चमचागिरी करते। अंधेर युग वाले जमात को सांप सूंघ जाता। इस डेढ़ पसली के ढाड़ी वाले कुर्ते धारी का नाम सुनकर। ऐसे उस खतरनाक से हे! मेरे प्रिय, हे! मेरे आश्रीत, हे! मेरे मित्रों, हे! मेरे सहोदर, हे! मेरे वीर परिजनों। जरा हिम्मत से काम लो, स्तब्ध नहीं रहो, इस नश्वर शरीर की मृत्यु से तनिक भी ना भय खाओ।हे! मेरे अनुज, हे! मेरे शूरवीर, हे! मेरे महान पूर्वजों की दिलेर-बहादुर संतानों, चलो सब समवेत भागो। सदा युद्धभूमि में आगे आकर प्राणोंत्सर्ग करने में तत्पर वीर पूर्वज स्वर्ग से तुम्हें आशिष दे रहें हैं। अकेला मत समझो तुम खुद को कभी कायर मत बनो, दम लगा कर पतली गली से निकल भागो! अपनी परंपराओं की रक्षा के लिए भाग कर मांद में, खोह में, बांबी में, कंदराओं में, वीरानों में, रेगिस्तानों में, बीहड़ों, भवरों में, खदानों में, पातालों में, चुप छुप जाओ औ यों अपनी जान बचाओं। हे! महिलाओं, हे! वीरांगनाओं, हे! कन्याओं, मत घबराओं! मैं भी तुम्हारे साथ संग-संग भाग रहा हूं। भागों!! हे! पुत्री, हे! मर्दानी, अपनी लाज बचाओं, शीलबचाओं, आंचल ले जाओ। पापी रावण से बचने को सीता की भांति पवित्र अग्नि में लुक छुप जाओ। हे! पुत्रों, हे! वीर नवजवानों। कसम तुम्हें है, अपने कदम न तुम थामों। पैरों को तुम पंख लगा दो। कालीख न लग जाये हमारे जाति के शौर्यपूर्ण इतिहास पर, सो शक्ति भर तुम फौरन तीव्रता से भागो। जल्द उल्टे पैर भागो। अपने बीज बचाओ! अपना कुल वंश बचाओं। अपनी शुद्धता संस्कृति बचाओ। हे! मेरे आल्हा-ऊदल सम! हे! मेरे लव-कुश प्रतिबिम्ब! हे! मेरे नयन ज्योतिपुंत! हे! गुणी सुजान! ज्ञानी नचिकेता को याद करे। अकाल मृत्यु का नहीं भय करो। करो सामना वीरोचित- भाग यहां से इस संकट के पल का। यहां से तीव्र गति से भाग तुम्हें बचना, तब देखना इतिहास में तुम्हारा नाम स्वर्णाक्षरों में खुदा होगा। अनमोल गीता ज्ञान को स्मरण कर मित्रा-संबंधी-रिश्तों के मिथ्यामोह बंधन के चोले को अविलंब त्यागो। प्रभु नाम ले रणछोड़ के, अपने ज्ञान और शिक्षा की रक्षा करने, अपने सत् को रक्षित करने भागो!! हे! वृृद्धों, हे! मृत्युदेव की प्रतिक्षा में मेरे मित्रों, हे! कब्र में पैर डाले वीरों, अपनी जवानी के शौर्यपूर्ण कार्यों को याद करो। परीक्षा की यह भीषणतम् घड़ी आन पड़ी है। दिखला दो तुममे महासमर के भीष्मपितामह सा बल। डटो ना! तुम डटकर तीव्र गति से भागो। कुल्टी वाणी बाणों से क्षत-विक्षत होगा आत्मा पर तो भी, हाँ, तो भी हाँ ऽ.. हाँऽ.. !!! बर्बरीक से रहना जीवत मस्तिष्क लिए। न थमना! जीन को संरक्षित करने, मन मस्तिष्क को विनाशकारी विकृती से बचाने बस लाठी टेक अकेले भागो। ईऽ ... आऽ.. .ऽ., इऽा, इॉ,.. ऽऽऽ. बस भागो। भागोऽ!! शैतानों में महाशैतान आ रहा लेने हमारी महाखबर। उसका मुकाबला जब नहीं कर सकता..ऽ..कोई भगवान अवतार भी .... क्योंकि आने वाला है, वो
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