महाबली भीम और हिडिम्बा के पुत्र वीर घटोत्कच ने शास्त्रार्थ प्रतियोगिता जीतकर राजा मूर की पुत्री, कामकटंकटा (“मौर्वी”) से विवाह किया| उन्होंने एक वीर पुत्र को जन्म दिया जिसके केश बब्बर शेर की तरह दिखते थे| अतः उनका नाम बर्बरीक रखा गया|
आज उन ही वीर बर्बरीक को हम खाटू श्याम बाबा के “श्री श्याम”, “कलयुग के आवतार”, “श्याम सरकार”, “तीन बाणधारी”, “शीश के दानी”, “खाटू नरेश” तथा अन्य अनगिनत नामों से संबोधित करते हैं|
जब विद्वान बर्बरीक ने भगवान श्री कृष्ण से पूछा – “हे प्रभु! इस जीवन का सर्वोतम उपयोग क्या है?” इस कोमल एवं निश्छल हृदय से पूछे गए प्रश्न का उत्तर देते हुए श्री कृष्ण बोले – “हे पुत्र, इस जीवन का सर्वोत्तम उपयोग: परोपकार व निर्बल का साथी बनकर सदैव धर्म का साथ देने से है| इसके लिये तुम्हे बल एवं शक्तियाँ अर्जित करनी पड़ेगी| अत: तुम महीसागर क्षेत्र में नव दुर्गा की आराधना कर शक्तियाँ अर्जन करो|” श्री कृष्ण ने बर्बरीक का निश्चल एवं कोमल हृदय देखकर उन्हें “सुहृदय” नाम से अलंकृत किया|
बर्कारिक ने ३ वर्ष तक सच्ची श्रधा और निष्ठा के साथ नवदुर्गा की आराधना की और प्रसन्न होकर माँ दुर्गा ने बर्बरीक को तीन बाण और कई शक्तियाँ प्रदान की जिनसे तीनो लोको को जीता जा सकता था| तत्पश्चात माँ जगदम्बा ने उन्हें “चण्डील” नाम से संबोधित किया|
जब वीर बर्बरीक ने अपने माँ से महाभारत के युद्ध में हिस्सा लेने की इच्छा व्यक्त की, तब माता मोर्वी ने उनसे हारने वाले पक्ष का साथ देने का वचन लिया और युद्ध में भाग लेने की आज्ञा दी| भगवान श्री कृष्ण जानते थे की कौरवो की सेना हार रही थी| अपनी माता के आज्ञा के अनुसार महाबली बर्बरीक पाण्डव के विपक्ष में युद्ध करेंगे जिससे पाण्डवो की हार निश्चित हो जाएगी| इस अनहोनी को रोकने के लिए श्री कृष्ण ने बर्बरीक को रोका, उनकी परीक्षा ली और अपने सुदर्शन चक्र से उनका सर धड़ से अलग कर दिया|
सुदर्शन चक्र से शीश काटने के बाद माँ चण्डिका देवी ने वीर बर्बरीक के शीश को अमृत से सींच कर देवत्व प्रदान किया| तब इस नविन जाग्रत शीश ने उन सबको प्रणाम किया और कहा -”मैं युद्ध देखना चाहता हूँ| आप लोग इसकी स्वीकृति दीजिए|” श्री कृष्ण बोले – “हे वत्स! जब तक यह पृथ्वी नक्षत्र सहित है और जब तक सूर्य चन्द्रमा है, तब तक तुम सब लोगो के लिए पूजनीय होओगे| तुम सैदव देवियों के स्थानों में देवियों के समान विचरते रहोगे और अपने भक्तगणों के समुदाय में कुल देवियो की मर्यादा जैसी है, वैसी ही बनाई रखोगे और पर्वत की चोटी पर से युद्ध देखो|” इस प्रकार भगवान कृष्ण ने उस शीश को कलयुग में देव रूप में पूजे जाने और अपने भक्तों की मनोकामना पूर्ण करने का वरदान दिया| महाभारत युद्ध की समाप्ति पर महाबली श्री भीमसेन को अभिमान हो गया कि युद्ध केवल उनके पराक्रम से जीता गया है| अर्जुन ने कहा कि वीर बर्बरीक के शीश से पूछा जाये की उसने इस युद्ध में किसका पराक्रम देखा है| तब वीर बर्बरीक के शीश ने उत्तर दिया की यह युद्ध केवल भगवान श्रीकृष्ण की निति के कारण जीता गया| इस युद्ध में केवल भगवान श्रीकृष्ण का सुदर्शन चक्र चलता था, अन्यत्र कुछ भी नहीं था| भगवान श्रीकृष्ण ने पुनः वीर बर्बरीक के शीश को प्रणाम करते हुए कहा – “हे वीर बर्बरीक आप कलियुग में सर्वत्र पूजित होकर अपने सभी भक्तो के अभीष्ट कार्य को पूर्ण करोगे|” ऐसा कहने पर समस्त नभ मंडल उद्भाषित हो उठा एवं बाबा श्याम के देव स्वरुप शीश पर पुष्प की वर्षा होने लगी|
आज उन ही वीर बर्बरीक को हम खाटू श्याम बाबा के “श्री श्याम”, “कलयुग के आवतार”, “श्याम सरकार”, “तीन बाणधारी”, “शीश के दानी”, “खाटू नरेश” तथा अन्य अनगिनत नामों से संबोधित करते हैं|
जब विद्वान बर्बरीक ने भगवान श्री कृष्ण से पूछा – “हे प्रभु! इस जीवन का सर्वोतम उपयोग क्या है?” इस कोमल एवं निश्छल हृदय से पूछे गए प्रश्न का उत्तर देते हुए श्री कृष्ण बोले – “हे पुत्र, इस जीवन का सर्वोत्तम उपयोग: परोपकार व निर्बल का साथी बनकर सदैव धर्म का साथ देने से है| इसके लिये तुम्हे बल एवं शक्तियाँ अर्जित करनी पड़ेगी| अत: तुम महीसागर क्षेत्र में नव दुर्गा की आराधना कर शक्तियाँ अर्जन करो|” श्री कृष्ण ने बर्बरीक का निश्चल एवं कोमल हृदय देखकर उन्हें “सुहृदय” नाम से अलंकृत किया|
बर्कारिक ने ३ वर्ष तक सच्ची श्रधा और निष्ठा के साथ नवदुर्गा की आराधना की और प्रसन्न होकर माँ दुर्गा ने बर्बरीक को तीन बाण और कई शक्तियाँ प्रदान की जिनसे तीनो लोको को जीता जा सकता था| तत्पश्चात माँ जगदम्बा ने उन्हें “चण्डील” नाम से संबोधित किया|
जब वीर बर्बरीक ने अपने माँ से महाभारत के युद्ध में हिस्सा लेने की इच्छा व्यक्त की, तब माता मोर्वी ने उनसे हारने वाले पक्ष का साथ देने का वचन लिया और युद्ध में भाग लेने की आज्ञा दी| भगवान श्री कृष्ण जानते थे की कौरवो की सेना हार रही थी| अपनी माता के आज्ञा के अनुसार महाबली बर्बरीक पाण्डव के विपक्ष में युद्ध करेंगे जिससे पाण्डवो की हार निश्चित हो जाएगी| इस अनहोनी को रोकने के लिए श्री कृष्ण ने बर्बरीक को रोका, उनकी परीक्षा ली और अपने सुदर्शन चक्र से उनका सर धड़ से अलग कर दिया|
सुदर्शन चक्र से शीश काटने के बाद माँ चण्डिका देवी ने वीर बर्बरीक के शीश को अमृत से सींच कर देवत्व प्रदान किया| तब इस नविन जाग्रत शीश ने उन सबको प्रणाम किया और कहा -”मैं युद्ध देखना चाहता हूँ| आप लोग इसकी स्वीकृति दीजिए|” श्री कृष्ण बोले – “हे वत्स! जब तक यह पृथ्वी नक्षत्र सहित है और जब तक सूर्य चन्द्रमा है, तब तक तुम सब लोगो के लिए पूजनीय होओगे| तुम सैदव देवियों के स्थानों में देवियों के समान विचरते रहोगे और अपने भक्तगणों के समुदाय में कुल देवियो की मर्यादा जैसी है, वैसी ही बनाई रखोगे और पर्वत की चोटी पर से युद्ध देखो|” इस प्रकार भगवान कृष्ण ने उस शीश को कलयुग में देव रूप में पूजे जाने और अपने भक्तों की मनोकामना पूर्ण करने का वरदान दिया| महाभारत युद्ध की समाप्ति पर महाबली श्री भीमसेन को अभिमान हो गया कि युद्ध केवल उनके पराक्रम से जीता गया है| अर्जुन ने कहा कि वीर बर्बरीक के शीश से पूछा जाये की उसने इस युद्ध में किसका पराक्रम देखा है| तब वीर बर्बरीक के शीश ने उत्तर दिया की यह युद्ध केवल भगवान श्रीकृष्ण की निति के कारण जीता गया| इस युद्ध में केवल भगवान श्रीकृष्ण का सुदर्शन चक्र चलता था, अन्यत्र कुछ भी नहीं था| भगवान श्रीकृष्ण ने पुनः वीर बर्बरीक के शीश को प्रणाम करते हुए कहा – “हे वीर बर्बरीक आप कलियुग में सर्वत्र पूजित होकर अपने सभी भक्तो के अभीष्ट कार्य को पूर्ण करोगे|” ऐसा कहने पर समस्त नभ मंडल उद्भाषित हो उठा एवं बाबा श्याम के देव स्वरुप शीश पर पुष्प की वर्षा होने लगी|
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